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जानिए 'गणपति बप्पा मोरिया' जयकारे में क्या है 'मोरिया' शब्द का राज ?
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जानिए ‘गणपति बप्पा मोरिया’ जयकारे में क्या है ‘मोरिया’ शब्द का राज.

इन दिनों चारों तरफ एक ही जयकारा गुंज रहा है गणपति बप्पा मोरिया, मोरिया रे मोरिया…. अब सवाल यह है कि यह मोरिया क्या है? मोर या मौर्य से इसका कोई ताल्लुक है या यह गणपति का ही कोई नाम है? जी नहीं इस मोरिया शब्द के पीछे का इतिहास बिलकुल ही अलग है और हमें यकीन है कि आपके लिए भी यह जानकारी नई ही होगी….

गणेश चतुर्थी से गणेश विसर्जन तक ‘मो‍रिया’ गुंजन की धूम रहती है, “गणपति बप्पा मोरया, मंगळमूर्ती मोरया, पुढ़च्यावर्षी लवकरया” अर्थात हे मंगलकारी पिता, अगली बार और जल्दी आना. मालवा में इसी तर्ज़ पर चलता है ‘गणपति बप्पा मोरिया, चार लड्डू चोरिया, एक लड्डू टूट ग्या, नि गणपति बप्पा घर अइग्या. गणपति बप्पा से जुड़े इस मोरया नाम के पीछे का राज है एक गणेश भक्त.

गणेश-पुराण के अनुसार दानव सिन्धु के अत्याचार से बचने के लिए देवताओं ने श्रीगणेश का आह्वान किया. सिन्धु-संहार के लिए गणेश ने मयूर को अपना वाहन चुना और छह भुजाओं वाला अवतार लिया. मोरगांव में गणेश का मयूरेश्वर अवतार ही है। इसी वजह से इन्हें मराठी में मोरेश्वर भी कहा जाता है. कहते हैं वामनभट और पार्वती को मयूरेश्वर की आराधना से पुत्र प्राप्ति हुई.

परम्परानुसार उन्होंने आराध्य के नाम पर ही सन्तान का नाम मोरया रख दिया. मोरया भी बचपन से गणेशभक्त हुए. उन्होंने थेऊर में जाकर तपश्चर्या भी की थी जिसके बाद उन्हें सिद्धावस्था में गणेश की अनुभूति हुई. तभी से उन्हें मोरया अथवा मोरोबा गोसावी की ख्याति मिल गई.

उन्होंने वेद-वेदांग, पुराणोपनिषद की गहन शिक्षा प्राप्त की,युवावस्था में वे गृहस्थ-सन्त हो गए. माता-पिता के स्वर्गवास के बाद वे पुणे के समीप पवना नदी किनारे चिंचवड़ में आश्रम बना कर रहने लगे. इस आश्रम में मोरया गोसावी अपनी धार्मिक-आध्यात्मिक गतिविधियां चलाने लगे. उनकी ख्याति पहले से भी अधिक बढ़ने लगी.

समर्थ रामदास और संत तुकाराम के नियमित तौर पर चिंचवड आते रहने का उल्लेख मिलता है जिनके मन में मोरया गोसावी के लिए स्नेहयुक्त आदर था. मराठियों की प्रसिद्ध गणपति वंदना “सुखकर्ता-दुखहर्ता वार्ता विघ्नाची..” की रचना सन्त कवि समर्थ रामदास ने चिंचवड़ के इसी सिद्धक्षेत्र में मोरया गोसावी के सानिध्य में की थी.

चिंचवड़ आने के बावजूद मोरया गोसावी प्रतिवर्ष गणेश चतुर्थी पर मोरगांव स्थित मन्दिर में मयूरेश्वर के दर्शनार्थ जाते थे.कथाओं के मुताबिक मोरया गोसावी श्री गणेश की प्रेरणा से समीपस्थ नदी से जाकर एक प्रतिमा लाई और उसे चिंचवड़ के आश्रम में स्थापित किया. बाद में उन्होंने यहीं पर जीवित समाधि ली.

उनके पुत्र चिन्तामणि ने बाद में समाधि पर मन्दिर की स्थापना की. यही नहीं, आस-पास के अन्य गणेश स्थानों की सारसंभाल के लिए भी मोरया गोसावी ने काम किया. अष्टविनायक यात्रा की शुरुआत भी मोरया गोसावी ने ही कराई और इस कड़ी के प्रथम गणेश मयूरेश्वर ही हैं. अष्टविनायक यात्रा की शुरुआत मयूरेश्वर गणेश से ही होती है.

कहा जाता है कि मोरया गोसावी ने यहां जीवित समाधि ली थी. तभी से यहां का गणेशमन्दिर देश भर में विख्यात हुआ और गणेशभक्तों ने गणपति के नाम के साथ मोरया के नाम का जयघोष भी शुरू कर दिया.

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