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ओशो के आश्रम में टॉयलेट तक धोते थे फिल्म स्‍टार विनोद खन्ना !

ओशो यानिकि चंद्र मोहन जैन का जन्म 11 दिसंबर 1931 को हुआ था. जगह थी मध्य प्रदेश के रायसेन ज़िले का गांव कुचवाड़ा और एक कच्चे मकान में हुआ था . ओशो के माता-पिता रहने वाले तो जबलपुर के थे लेकिन उनका बचपन अपने नाना नानी के पास गुज़रा. ओशो में कुछ खास था तभी तो उन्होने 19 साल की उम्र में अपनी बीए की पढ़ाई के लिए विषय चुना दर्शन शास्त्र. पहले वो जबलपुर के एक कॉलेज में पढ़े और फिर मास्टर डिग्री करने सागर यूनिवर्सिटी पहुंच गए.

पढ़ाई पूरी की तो फैसला किया कि अब दूसरे को शिक्षा देंगे. और पेशा चुना प्रोफेसरी का. रायुपर के संस्कृत कॉलेज में प्रोफेसर बन गए, लेकिन ओशो के तेवर के कॉलेज का मैनेजमेंट घबरा गया. उनके सुलगते विचार छात्रों को भटका रहे ये आरोप लगा कर ओशो को कॉलेज से निकाल दिया गया. अगला पड़ाव बनी जबलपुर यूनिवर्सिटी. बेबाक प्रोफेसर चंद्र मोहन जैन, अध्यात्म की ओर कदम बढा चुके थे. वो पूरे देश में घूम कर प्रवचन देने लगे.

1960 से लेकर 1966 तक उन्होने पूरा भारत घूमा. उनके लाखो प्रशंसक बने लेकिन कई दुश्मन भी तैयार हो गए. वजह थी कि वो कभी कम्युनिस्टों को भला बुरा कहते तो कभी गांधी की विचारधारा पर सवाल उठाते. कुछ लोगों को उनके विवाद उनकी काबिलियत ज्यादा चुभने लगे. नतीजा 1966 तक आते आते जबलपुर यूनिवर्सिटी ने उनसे नाता तोड़ने का फैसला ले लिया. लेकिन उससे बड़ा फैसला तो खुद प्रोफेसर चंद्र मोहन जैन ले चुके थे. वो फैसला था प्रोफेसर चंद्र मोहन जैन से आचार्य रजनीश बनने का. एक ऐसा फैसला जो अब आने वाले समय में अध्यात्म का एक नया रास्ता खोलने वाला था. लेकिन इसके साथ ही शुरु होने वाला था वो सब जो पूरे देश पूरी दुनिया में तहलका मचाने वाला था.

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ओशो को जो भी सुनता वो प्रभावित जरूर होता, उनके भक्तों में आम आदमी के साथ फिल्म स्टार भी थे. उनके सबसे बड़े भक्त बने 70 के दशक के बॉलीवुड फिल्म स्टार विनोद खन्ना.

विनोद खन्ना उस वक्‍त बॉलीवुड में दूसरे नंबर के स्‍टार माने जाते थे. हालांकि उससे कुछ वक्‍त पहले से उन्‍होंने फिल्‍म निर्माताओं को फिल्‍में करने से मना कर दिया था. यहां तक कि कुछ फिल्‍में जिसे वो साइन कर चुके थे, उनका साइनिंग अमाउंट तक वापस कर दिया था. विनोद खन्‍ना ने मुंबई के होटल सेंटूर में प्रेस कांफ्रेंस बुलाई तो मीडिया के लिए ये हैरानी की बात थी, क्योंकि तब आज की तरह बॉलीवुड स्टार शायद ही कभी प्रेस कांफ्रेंस बुलाते थे. विनोद खन्ना महरून रंग का चोला और ओशो की तस्वीर वाली मनकों की माला पहनकर आए. उनकी पहली पत्नी गीतांजलि और दोनों बेटे अक्षय और राहुल भी उस वक्त उनके साथ थे. प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में विनोद ने बताया कि वह फिल्‍मों से संन्‍यास ले रहे हैं.

विनोद खन्ना 70 के दशक में आचार्य रजनीश से प्रभावित होने लगे थे. 1975 के ठीक आखिरी दिन वह रजनीश आश्रम में संन्यासी बन गए. इससे पहले उन्होंने घंटों रजनीश के वीडियो देखे. उनके साथ समय बिताया. 70 के दशक के आखिरी सालों में वह सोमवार से लेकर शुक्रवार तक बॉलीवुड में काम करते. फिर उनकी मर्सीडिज कार पुणे की ओर भागती नजर आती. सप्ताहांत के दो दिन पुणे के ओशो आश्रम में गुजरते, जहां पहले तो वह होटल में रुकते थे. फिर आश्रम में ही ठहरने लगे. वहीं पर काम करते और आश्रम के टॉयलेट तक धोते थे.

आश्रम में जैसे ही वह अंदर पैर रखते, उनका स्टार का चोला उतर जाता, वह रजनीश के दूसरे शिष्यों की तरह हो जाते. उन दो दिनों में ध्यान और आश्रम के अन्य कार्यक्रमों के बाद उन्हें बगीचों की सफाई के काम में तल्लीन देखा जाता. आश्रम के बाहर उनका ड्राइवर कार के साथ खड़ा होता. वह अंदर जमीन पर गिरे सूखे पत्ते उठाकर कूड़ेदान में डालते देखे जाते. आश्रमवासियों के बीच वह स्वामी विनोद भारती थे, उन्हीं सबकी तरह. सबसे मुस्कुराकर आत्मीयता से मिलने वाले.

बॉलीवुड के पुराने फिल्म पत्रकार याद करते हैं कि किस तरह विनोद शूटिंग पर भी रजनीशी चोले में पहुंचते थे. इसे तभी उतारते जब सेट शॉट के लिए पूरी तरह तैयार हो जाता. मिलने वालों से यही कहते, रजनीश धरती पर इकलौते जीवित भगवान हैं. 80 के दशक की शुरुआत में पुणे के रजनीश आश्रम में दिक्कतों की खबरों आने लगी थीं. स्थानीय प्रशासन का रुख कड़ा था. रातों-रात रजनीश के अमेरिका के ओरेगॉन जाने की खबर आई. वह प्रिय शिष्यों को वहां साथ रखना चाहते थे. विनोद खन्ना से भी चलने को कहा.

विनोद खन्ना ने बॉलीवुड छोड़कर ओरेगान के रजनीशपुरम जाने की घोषणा कर दी. उन्होंने कहा- मैं फिल्में छोड़ रहा हूं. फिर अपना परिवार भारत में छोड़कर चले गए. ओरेगॉन में स्वामी विनोद भारती को माली का काम मिला. वह सुबह जल्दी उठते. पौधों को पानी देते. कांटते-छांटते. गार्डन की देखरेख करते. उस दौरान विनोद खन्ना की खबरें आनी बंद हो गईं. हालांकि जब कोई भारतीय अतिथि ओरेगान के रजनीशपुरम में जाता तो विनोद उससे यही कहते, मैं ओशो का माली हूं. ओरेगॉन के रजनीशपुरम में उन्हें एक छोटा सा कमरा मिला. छह बाई चार फुट का. वह इसी में खुश और संतुष्ट थे.

19 जनवरी 1990 शाम 5 बजे ओशो ने इस धरती को अलविदा कह दिया. शरीर को त्यागने से पहले ओशो ने अपने भक्तों से, एक गुज़ारिश की. मेरे जाने का गम न मनाना. बल्कि मेरे शरीर के साथ उत्सव मनाना. हुआ भी यही. पुणे के बुद्धा हॉल में ओशो के शरीर को रखा गया, जमकर मृत्यु का उत्सव मना और दिल खोलकर मना. नाचते गाते सन्यासी अपने भगवान के को बर्निंग घाट तक ले गए. जहां सारी रात ये उत्सव जारी रहा. ओशो की समाधि पर लिखा गया. वो ना कभी पैदा हुआ, ना वो कभी मरा. वो तो बस इस धरती पर 11 दिसंबर 1931 से लेकर 19 जनवरी 1990 तक रहने के लिए आया था.

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